Monday, March 08, 2010

एक अंतर्कथा

अग्नि के काष्ठ
खोजती माँ,
बीनती नित्य  सूखे डंठल
सुखी टहनी, रुखी डालें
घुमती सभ्यता के जंगल
वह मेरी माँ
खोजती अग्नि के अधिष्ठान

मुझमें दुविधा,
पर, माँ की आज्ञा से समिधा
एकत्र कर रहा हूँ ;
मैं हर एक टहनी में डंठल में
एक-एक स्वप्न देखता हुआ
पहचान रहा प्रत्येक
जतन से जमा रहा
टोकरी उठा, मैं चला जा रहा हूँ

टोकरी उठाना.....चलन नहीं
वह फैशन के विपरीत -
इसीलिए निगाहें बचा-बचा
आरे-तिरछे चलता हु मैं
संकुचित और भयभीत
 अजीब सी टोकरी
कि उसमें प्राणवान माया....
गहरी कीमिया
सहेज उभरी फैली संवरी,
डंठल - टहनी की कठिन साँवली रेखाएं
आपस में लग यों गुंथ जातीं
मानो अक्षर नवसाक्षर खेतिहर के - से
वे बेढभ वाक्य फुसफुसाते
टोकरी विवर में से स्वर आते दबे - दबे
मानो कलरव  गा उठता हो धीमे-धीमे
अथवा मनोज्ञ शत रंग-बिरंगी बिहंग गाते हों

आगे-आगे माँ
पीछे मैं;
उसकी दृढ़ पीठ ज़रा सी झुक
चुन लेती डंठल पल भर रुक
वह जीर्ण-नील-वस्त्रा
है अस्थि-दृढ़ा
गतिमती व्यक्तिमत्ता
कर रहा अध्ययन मैं उसकी मज़बूती का
उसके जीवन से लगे हुए
वर्षा-गर्मी-सर्दी और क्षुधा-तृषा के वर्षों से
मैं पूछ रहा –
टोकरी-विवर में पक्षी-स्वर
कलरव क्यों है
माँ कहती –
'सूखी टहनी की अग्नि क्षमता
ही गाती है पक्षी स्वर में
वह बंद आग है खुलने को।'
मैं पाता हूँ
कोमल कोयल अतिशय प्राचीन
व अति नवीन
स्वर में पुकारती है मुझको
टोकरी-विवर के भीतर से।
पथ पर ही मेरे पैर थिरक उठते
कोमल लय में।
मैं साश्रुनयन, रोमांचित तन; प्रकाशमय मन।
उपमाएँ उद्धाटित-वक्षा मृदु स्नेहमुखी
एक-टक देखतीं मुझको –
प्रियतर मुसकातीं...
मूल्यांकन करते एक-दूसरे का
हम एक-दूसरे को सँवारते जाते हैं
वे जगत्-समीक्षा करते-से
मेरे प्रतीक रूपक सपने फैलाते हैं
आगामी के।
दरवाज़े दुनिया के सारे खुल जाते हैं
प्यार के साँवले किस्सों की उदास गलियाँ
गंभीर करूण मुस्कराहट में
अपना उर का सब भेद खोलती हैं।
अनजाने हाथ मित्रता के
मेरे हाथों में पहुँच मित्रता भरते हैं
मैं अपनों से घिर उठता हूँ
मैं विचरण करता-सा हूँ एक फ़ैंटेसी में
यह निश्चित है कि फ़ैंटेसी कल वास्तव होगी।
मेरा तो सिर फिर जाता है
औ' मस्तक में
ब्रह्मांड दीप्ति-सी घिर उठती
रवि-किरण-बिंदु आँखों में स्थिर हो जाता है |

सपने से जागकर पाता हूँ सामने वही
बरगद के तने-सरीखी वह अत्यंत कठिन
दृढ़ पीठ अग्रगायी माँ की
युग-युग अनुभव का नेतृत्व
आगे-आगे,
मैं अनुगत हूँ।
वह एक गिरस्तन आत्मा
मेरी माँ
मैं चिल्लाकर पूछता –
कि यह सब क्या
कि कौन सी माया यह।
मुड़कर के मेरी ओर सहज मुसका
वह कहती है –
'आधुनिक सभ्यता के वन में
व्यक्तित्व-वृक्ष सुविधावादी।
कोमल-कोमल टहनियाँ मर गईं अनुभव-मर्मों की
यह निरुपयोग के फलस्वरूप हो गया।
उनका विवेकसंगत प्रयोग हो सका नहीं
कल्याणमयी करूणाएँ फेंकी गईं
रास्ते पर कचरे-जैसी,
मैं चीन्ह रही उनको।
जो गहन अग्नि के अधिष्ठान
हैं प्राणवान
मैं बीन रही उनको
देख तो
उन्हें सभ्यताभिरूचिवश छोड़ा जाता है
उनसे मुँह मोड़ा जाता है
दम नहीं किसी में
उनको दुर्दम करे
अनलोपम स्वर्णिम करे।
घर के बाहर आंगन में मैं सुलगाऊँगी
दुनियाभर को उनका प्रकाश दिखलाऊँगी।'

यह कह माँ मुसकाई,
तब समझा
हम दो
क्यों
भटका करते हैं, बेगानों की तरह, रास्तों पर।
मिल नहीं किसी से पाते हैं
अंतस्थ हमारे प्ररयितृ अनुभव
जम नहीं किसी से पाते है हम
फिट नहीं किसी से होते हैं
मानो असंग की ओर यात्रा असंग की।
वे लोग बहुत जो ऊपर-ऊपर चढ़ते हैं
हम नीचे-नीचे गिरते हैं
तब हम पाते वीथी सुसंगमय ऊष्मामय।
हम हैं समाज की तलछट, केवल इसीलिए
हमको सर्वोज्ज्वल परंपरा चाहिए।
माँ परंपरा-निर्मिति के हित
खोजती ज़िंदगी के कचरे में भी
ज्ञानात्मक संवेदन
पर, रखती उनका भार कठिन मेरे सिर पर

अजीब अनुभव है
सिर पर टोकरी-विवर में मानव-शिशु
वह कोई सद्योजात
मृदुल-कर्कश स्वर में
रो रहा;
सच. प्यार उमड़ आता उस पर
पर, प्रतिपालन-दायित्व भार से घबराकर
मैं तो विवेक खो रहा
वह शिकायतों से भरा बाल-स्वर मँडराता
प्रिय बालक दुर्भर, दुर्धर है – यह मैं विचारता, कतराता
झखमार, झींक औ' प्यार गुँथ रहे आपस में
वह सिर पर चढ़ रो रहा, नहीं मेरे बस में
बढ़ रहा बोझ। वह मानव शिशु
भारी-भारी हो रहा।

वह कौन? कि सहसा प्रश्न कौंधता अंतर में –
'वह है मानव परंपरा'
चिंघाड़ता हुआ उत्तर यह,
'सुन, कालिदास का कुमारसंभव वह।'
मेरी आँखों में अश्रु और अभिमान
किसी कारण
अंतर के भीतर पिघलती हुई हिमालयी चट्टान
किसी कारण;
तब एक क्षण भर
मेरे कंधों पर खड़ा हुआ है देव एक दुर्धर
थामता नभस दो हाथों से
भारान्वित मेरी पीठ बहुत झुकती जाती
वह कुचल रही है मुझे देव-आकृति।
है दर्द बहुत रीढ़ में
पसलियाँ पिरा रहीं
पाँव में जम रहा खून
द्रोह करता है मन
मैं जनमा जब से इस साले ने कष्ट दिया
उल्लू का पट्ठा कंधे पर है खड़ा हुआ।
कि इतने में
गंभीर मुझे आदेश –
कि बिल्कुल जमे रहो।
मैं अपने कंधे क्रमशः सीधे करता हूँ
तन गई पीठ
और स्कंध नभोगामी होते
इतने ऊँचे हो जाते हैं,
मैं एकाकार हो गया-सा देवाकृति से।
नभ मेरे हाथों पर आता
मैं उल्का-फूल फेंकता मधुर चंद्रमुख पर
मेरी छाया गिरती है दूर नेब्यूला में।
बस, तभी तलब लगती बीड़ी पीने की।
मैं पूर्वाकृति में आ जाता,
बस, चाय एक कप मुझे गरम कोई दे दे
ऐसी-तैसी उस गौरव की
जो छीन चले मेरी सुविधा
मित्रों से गप करने का मज़ा और ही है।
ये गरम चिलचिलाती सड़कें
सौ बरस जिएँ
मैं परिभ्रमण करता जाऊँगा जीवन भर
मैं जिप्सी हूँ।

दिल को ठोकर
वह विकृत आईना मन का सहसा टूट गया
जिसमें या तो चेहरा दिखता था बहुत बड़ा
फूला-फूला
या अकस्मात् विकलांग व छोटा-छोटा-सा
सिट्टी गुम है,
नाड़ी ठंडी।
देखता हूँ कि माँ व्यंग्यस्मित मुस्करा रही
डाँटती हुई कहती है वह –
'तब देव बिना अब जिप्सी भी,
केवल जीवन-कर्तव्यों का
पालन न हो सके इसीलिए
निज को बहकाया करता है।
चल इधर, बीन रूखी टहनी
सूखी डालें,
भूरे डंठल,
पहचान अग्नि के अधिष्ठान
जा पहुँचा स्वयं के मित्रों में
कर ग्रहण अग्नि-भिक्षा
लोगों से पड़ौसियों से मिल।
चिलचिला रही हैं सड़कें व धूल है चेहरे पर
चिलचिला रहा बेशर्म दलिद्दर भीतर का
पर, सेमल का ऊँचा-ऊँचा वह पेड़ रूचिर
संपन्न लाल फूलों को लेकर खड़ा हुआ
रक्तिमा प्रकाशित करता-सा
वह गहन प्रेम
उसका कपास रेशम-कोमल।
मैं उसे देख जीवन पर मुग्ध हो रहा हूँ!

कवि - गजानन माधव मुक्तिबोध 

Friday, December 04, 2009

स्त्री

स्त्री
अपने एकांत में ही
स्त्री होती है
बाकी समय
वह केवल सम्बन्ध होती है |

-Naresh Mehta

Monday, July 27, 2009

तुमने बदले हैं ज़िन्दगी के मायने

तुमने बदले हैं ज़िन्दगी के मायने,
देखा ज़िन्दगी को पनपते हुए,
अपनी आंखों से, अपने सामने,
साँसों को महसूस करते हुए !

तुम्हारी डगमगाती पावों की लय में,
मिली हमें अपनी स्थिरता,
वह मुस्कान, विश्वास और आनंद,
जिसे ढूंढा वर्षों तक, जिया इन दो सालों में,
उन छोटी उँगलियों ने,
मेरी हथेली सहलाते हुए बहुत कुछ कहा !

तुम्हारे सर के बीच में मुख छिपा कर,
स्वप्नों को ही तो जी रहें हैं हम !

तुम आधार, तुम विचार, तुम सवेरा,
तुम ही तो हमारे विश्वास का बसेरा !

नहीं आवश्यकता हमें बोधिसत्व की,
तुम ही तो अंत शाश्वात्ता की खोज का !

वह बिना बने शब्दों की भाषा का सत्य,
वह संकेतों से बनी दिशाओं का सत्य,
वह अँगुलियों से बनी स्थिरता का सत्य,
सत्य यही की तुमसे हमारा जीवन सत्य !


On eve of our son's 2nd birthday, my hubby wrote this.

Tuesday, June 30, 2009

बुनता हूँ जब

बुनता हूँ जब रेशा-रेशा
ख़ुद को उधेड़ता हूँ

होता जाता हूँ
ख़ुद से निकलता धागा
पर जो बुना जाता है
वह नही होता मैं

तुम जो बुने जाते हो
क्या कहीं पाते हो कभी
अपने होने में मुझको

by Nandkishor Acharya

Friday, May 22, 2009

मुझको इतने से काम पे रख लो...
जब भी सीने पे झूलता लॉकेट
उल्टा हो जाए तो मैं हाथों से
सीधा करता रहूँ उसको

मुझको इतने से काम पे रख लो...

जब भी आवेज़ा उलझे बालों में
मुस्कुराके बस इतना सा कह दो
आह चुभता है ये अलग कर दो

मुझको इतने से काम पे रख लो....

जब ग़रारे में पाँव फँस जाए
या दुपट्टा किवाड़ में अटके
एक नज़र देख लो तो काफ़ी है

मुझको इतने से काम पे रख लो...

This beautiful poetry is by Gulzaarji.

Wednesday, November 05, 2008

बुढ़िया रे

बुढ़िया रे,

बुढ़िया, तेरे साथ तो मैंने,

जीने की हर शह बाँटी है!

दाना पानी, कपड़ा लत्ता, नींदें और जगराते सारे,

औलादों के जनने से बसने तक, और बिछड़ने तक!

उम्र का हर हिस्सा बाँटा है ----

तेरे साथ जुदाई बाँटी, रूठ, सुलह, तन्हाई भी,

सारी कारस्तानियाँ बाँटी, झूठ भी और सच भी,

मेरे दर्द सहे हैं तूने,

तेरी सारी पीड़ें मेरे पोरों में से गुज़री हैं,

साथ जिये हैं ----

साथ मरें ये कैसे मुमकिन हो सकता है ?

दोनों में से एक को इक दिन,

दूजे को शम्शान पे छोड़ के,

तन्हा वापिस लौटना होगा ।

This is by Gulzaarji

Wednesday, October 11, 2006

Sunny

A for Apple, B for Bunny है
M for Mummy, S for Sunny है

जो चाँद आए तुझे निहारे
तुझे रिझाने दुल्हन बनी है

सूरज की बातें सूरज ही जाने
मेरे जीवन की तू रोशनी है

तेरी हँसी मे है मेरा जीवन
और तेरे आँसू मेरी नमी है

A for Apple, B for Bunny है
M for Mummy, S for Sunny है

Written by Kunal for Sunny on 22Sept2006