स्त्री
अपने एकांत में ही
स्त्री होती है
बाकी समय
वह केवल सम्बन्ध होती है |
-Naresh Mehta
Friday, December 04, 2009
Monday, July 27, 2009
तुमने बदले हैं ज़िन्दगी के मायने
तुमने बदले हैं ज़िन्दगी के मायने,
देखा ज़िन्दगी को पनपते हुए,
अपनी आंखों से, अपने सामने,
साँसों को महसूस करते हुए !
तुम्हारी डगमगाती पावों की लय में,
मिली हमें अपनी स्थिरता,
वह मुस्कान, विश्वास और आनंद,
जिसे ढूंढा वर्षों तक, जिया इन दो सालों में,
उन छोटी उँगलियों ने,
मेरी हथेली सहलाते हुए बहुत कुछ कहा !
तुम्हारे सर के बीच में मुख छिपा कर,
स्वप्नों को ही तो जी रहें हैं हम !
तुम आधार, तुम विचार, तुम सवेरा,
तुम ही तो हमारे विश्वास का बसेरा !
नहीं आवश्यकता हमें बोधिसत्व की,
तुम ही तो अंत शाश्वात्ता की खोज का !
वह बिना बने शब्दों की भाषा का सत्य,
वह संकेतों से बनी दिशाओं का सत्य,
वह अँगुलियों से बनी स्थिरता का सत्य,
सत्य यही की तुमसे हमारा जीवन सत्य !
On eve of our son's 2nd birthday, my hubby wrote this.
देखा ज़िन्दगी को पनपते हुए,
अपनी आंखों से, अपने सामने,
साँसों को महसूस करते हुए !
तुम्हारी डगमगाती पावों की लय में,
मिली हमें अपनी स्थिरता,
वह मुस्कान, विश्वास और आनंद,
जिसे ढूंढा वर्षों तक, जिया इन दो सालों में,
उन छोटी उँगलियों ने,
मेरी हथेली सहलाते हुए बहुत कुछ कहा !
तुम्हारे सर के बीच में मुख छिपा कर,
स्वप्नों को ही तो जी रहें हैं हम !
तुम आधार, तुम विचार, तुम सवेरा,
तुम ही तो हमारे विश्वास का बसेरा !
नहीं आवश्यकता हमें बोधिसत्व की,
तुम ही तो अंत शाश्वात्ता की खोज का !
वह बिना बने शब्दों की भाषा का सत्य,
वह संकेतों से बनी दिशाओं का सत्य,
वह अँगुलियों से बनी स्थिरता का सत्य,
सत्य यही की तुमसे हमारा जीवन सत्य !
On eve of our son's 2nd birthday, my hubby wrote this.
Tuesday, June 30, 2009
बुनता हूँ जब
बुनता हूँ जब रेशा-रेशा
ख़ुद को उधेड़ता हूँ
होता जाता हूँ
ख़ुद से निकलता धागा
पर जो बुना जाता है
वह नही होता मैं
तुम जो बुने जाते हो
क्या कहीं पाते हो कभी
अपने होने में मुझको
by Nandkishor Acharya
ख़ुद को उधेड़ता हूँ
होता जाता हूँ
ख़ुद से निकलता धागा
पर जो बुना जाता है
वह नही होता मैं
तुम जो बुने जाते हो
क्या कहीं पाते हो कभी
अपने होने में मुझको
by Nandkishor Acharya
Friday, May 22, 2009
मुझको इतने से काम पे रख लो...
जब भी सीने पे झूलता लॉकेट
उल्टा हो जाए तो मैं हाथों से
सीधा करता रहूँ उसको
मुझको इतने से काम पे रख लो...
जब भी आवेज़ा उलझे बालों में
मुस्कुराके बस इतना सा कह दो
आह चुभता है ये अलग कर दो
मुझको इतने से काम पे रख लो....
जब ग़रारे में पाँव फँस जाए
या दुपट्टा किवाड़ में अटके
एक नज़र देख लो तो काफ़ी है
मुझको इतने से काम पे रख लो...
This beautiful poetry is by Gulzaarji.
उल्टा हो जाए तो मैं हाथों से
सीधा करता रहूँ उसको
मुझको इतने से काम पे रख लो...
जब भी आवेज़ा उलझे बालों में
मुस्कुराके बस इतना सा कह दो
आह चुभता है ये अलग कर दो
मुझको इतने से काम पे रख लो....
जब ग़रारे में पाँव फँस जाए
या दुपट्टा किवाड़ में अटके
एक नज़र देख लो तो काफ़ी है
मुझको इतने से काम पे रख लो...
This beautiful poetry is by Gulzaarji.
Subscribe to:
Posts (Atom)