बुनता हूँ जब रेशा-रेशा
ख़ुद को उधेड़ता हूँ
होता जाता हूँ
ख़ुद से निकलता धागा
पर जो बुना जाता है
वह नही होता मैं
तुम जो बुने जाते हो
क्या कहीं पाते हो कभी
अपने होने में मुझको
by Nandkishor Acharya
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ये चेंद कविताएँ है... कुछ मैने लिखी हैं, कुछ मेरे परिवार ने; मेरे पति, मेरे पापाजी (father-in-law)
wow reminds me of Gulzar Shaheb
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